नमस्कार दोस्तों
आज हम आपके सामने अस्मिता की कहानी लेकर प्रस्तुत है जिसे हमने नाम दिया है अंधे की
लकड़ी अर्थात अंतिम सहारा.
यह समाज के
मुंह पर तमाचा मारती एक आधुनिक कहानी है अर्थात अस्मिता का अनुभव है.
अस्मिता के
दादाजी के दो पुत्र और एक पुत्री थी. अस्मिता के दादाजी के पास गांव में काफी जमीन
जायदाद थी. उन्होंने अपने दोनों पुत्रों की शादी और पुत्री की शादी बड़े धूमधाम से
कर दी थी.
अस्मिता के
ताऊजी अर्थात उनके पिता के बड़े भाई के 2 पुत्र थे. लेकिन अस्मिता के पिताजी के मात्र
2 पुत्री ही पैदा हुई. उनके यहां कोई भी पुत्र पैदा नहीं हुआ था.
भारतीय सरकार
ने कानून बना लिया है कि अब पुत्री को भी पिता की जायदाद से बराबर का हक मिलेगा, तब
से स्थिति थोड़ा सा बदल गई है.
पहले हमारे
समाज में पुत्रियों को पिता की जायदाद से हिस्सा नहीं मिलता था लेकिन अब मिलने लगा
है इसका एक विपरीत प्रभाव अस्मिता की जिंदगी पर पड़ा बल्कि अस्मिता के पिता की जिंदगी
पर पड़ा.
अस्मिता के
कोई भाई नहीं था. इसलिए उनके दादाजी ने अपनी संपत्ति का थोड़ा सा भी हिस्सा अस्मिता
के पिताजी को नहीं दिया. क्योंकि उन्हें लगता था, कि उनकी संपत्ति की मालकिन उसकी पोती
के ससुराल वाले हो जाएंगे और वह ऐसा नहीं चाहते थे.
इसका बड़ा
गहरा प्रभाव अस्मिता के परिवार पर पड़ा. उन्हें अपना जीवन यापन करने के लिए काफी संघर्ष
करना पड़ रहा था. क्योंकि पिताजी की कोई नौकरी नहीं थी और दादाजी उन्हें घर से कुछ
भी नहीं दे रहे थे. इसलिए उन्हें मजदूरी करनी पड़ रही थी.
इसके विपरीत
उनके ताऊ जी का परिवार काफी संपन्न था वह काफी आराम से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे
क्योंकि वह अस्मिता के पिता के हिस्से का भी उपभोग कर रहे थे और जिसे वह अपना हक भी
मान रहे थे.
जब तक अस्मिता
की दादी रही तब तक अस्मिता के दादाजी को किसी भी प्रकार की कोई कमी घर पर महसूस नहीं
हो रही थी, लेकिन दादी के गुजरने के बाद अब दादा जी के ऊपर खाने-पीने का संकट नजर आ
रहा था.
क्योंकि अस्मिता के दादाजी का बड़ा बेटा अर्थात अस्मिता के ताऊ का परिवार बिल्कुल
भी उनका ध्यान नहीं रख रहा था. उन्होंने काफी परेशानी अनुभव हो रही थी, जबकि दादाजी
का सारा प्यार सारा स्नेह उसी परिवार के लिए ही था.
बुढ़ापे की
उम्र थी शरीर कमजोर हो रहा था और देखभाल और खान-पान सही नहीं मिलने की वजह से स्थिति
बद से बदतर होने लगी थी ऐसे में अस्मिता ने अपने दादाजी का ख्याल रखना शुरू कर दिया
था.
अस्मिता अपने
दादाजी की जिंदगी में अंधे की लकड़ी बन
कर आई थी. मात्र वही एक प्राणी थी जो अपने दादा जी का ध्यान रख रही थी और दादा जी को
अपने द्वारा किए गए कार्यों के लिए अब पछतावा होने लगा था.
लेकिन वह
अपने बर्ताव के लिए कुछ कर नहीं सकते थे. लेकिन वह आज भी यही चाहते थे कि उनकी संपत्ति
उन्हें के परिवार में रहे.
हालांकि अस्मिता
का अपने दादा की संपत्ति में जरा सा भी इंटरेस्ट नहीं था. वह तो मात्र अपना कर्तव्य
पूरा कर रही थी. क्योंकि महिला होने के नाते उनके अंदर ममता कूट-कूट कर भरी हुई थी
और परिवार का हिस्सा होने के कारण वह अपना फर्ज समझ कर सभी कार्य कर रही थी.
लेकिन यहां समाज को अपनी सोच से ऊपर उठकर बदलने की
आवश्यकता है, और महिलाओं के साथ इस प्रकार का भेदभाव इस बदलते समाज में पक्षपातपूर्ण
नजर आ रहा है.
अंधे की लकड़ी
बनने के बाद अर्थात एकमात्र सहारा होने के बाद भी दादाजी का मन आज भी अपनी संपत्ति
पुत्री के नाम करने का बिल्कुल भी मन नहीं है हमें इस सोच को बदलना चाहिए.